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वह घर-परिवार बहुत सुखी और सम्पन्न माना जाता है जिसके सभी सदस्य स्वस्थ शरीर एवं स्वस्थ मस्तिष्क वाले होते हैं। लेकिन स्वास्थ्य का वास्तविक अर्थ है कि हम बाहर और भीतर दोनों तरफ से नीरोग रहें।

हमारा स्वास्थ्य और रोग
हमारे शरीर में रोग अपने पैर महीनों पहले जमाना शुरू कर देता है, लेकिन हम आपाधापी के जीवन में उसकी तरफ से आंखें मूंदे रहते हैं। हम उस समय भी लापरवाह रहते हैं, जब रोग अपने लक्षण प्रकट करने लगता है। हमारी आंखें तो तब खुलती हैं जब हम बेदम होकर खाट पर गिर जाते हैं। यदि हम लक्षणों के प्रकट होने के साथ ही सावधान हो जाएं तो हमें शारीरिक और मानसिक रोग सताएंगे ही नहीं। हमारे अंदर निरंतर कार्य करने वाली जीवनी-शक्ति संतुलन बनाते हुए निरंतर सुचारु रूप से काम करती रहती है। परन्तु हम उसे समझने की कभी चेष्टा ही नहीं करते। हम यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे भीतर स्वाभाविक प्रसन्नता का स्रोत बहता रहता है।
हमारी दृढ़ता, आत्मनिर्भरता, सहज बुद्धि, चेतना शक्ति, धारणा शक्ति आदि अपने आप काम करती रहती है। ये सभी अच्छे स्वास्थ्य के चिह्न हैं। परन्तु अच्छा स्वास्थ्य तभी सम्भव हो सकता है जब हमारे शरीर का प्रत्येक अंग स्वाभाविक गति में निरंतर कार्य करता रहे। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए हमें प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए चलना पड़ता है। यदि हम किसी कारणवश इन प्राकृतिक नियमों को तोड़ते हैं तो रोग से नहीं बच पाते; क्योंकि प्रकृति के नियम धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित तथा छोटे-बड़े सभी पर एक निश्चित रूप में लागू होते हैं। उनकी अवहेलना ही सजा रूपी रोग है। आइये हम अपने स्वास्थ्य और रोग के विषय मे और अधिक जानकारी लेते है
स्वास्थ्य कहां है ?
हम जितने सभ्य और सुसंस्कृत होते जा रहे हैं, उतना ही स्वास्थ्य के सूत्रों को भूलते जा रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि डॉक्टर, वैद्य, हकीम या कोई भी व्यक्ति हमें स्वास्थ्य नहीं दे सकता। स्वास्थ्य ऐसी वस्तु नहीं है जिसे खरीदा या बेचा जा सकता हो। वास्तव में स्वास्थ्य प्राप्त करने का मन्त्र तो हमारे भीतर ही छिपा हुआ है। डॉ. डेन्स मोटरने ने अपनी पुस्तक ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ में लिखा है-” True healthy power is in our body” अर्थात् स्वास्थ्यवर्धक शक्ति हमारे शरीर के अन्दर है। इस प्रकार हमारे अन्दर की ऊर्जा केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं प्रदान करती बल्कि जीवन के ऊंचे से ऊंचे लक्ष्य को पूरा करने में भी सहायक होती है

यदि हम रोग से बचना चाहते हैं तो हमें व्यर्थ की मान्यताओं, जीवन में पड़ी आदतों तथा अवैज्ञानिक बातों को छोड़ना होगा। यह विचार निकाल देना होगा कि अंग्रेजी दवाएं ही हमारे रोग को दूर कर सकती हैं, घरेलू दवाएं नहीं।
तन-मन की एकता
जब हम शरीर के कार्यों और उपयोगिता के बारे में बात करते हैं तो उस समय मन के बारे में कुछ नहीं कहते। यही कारण है कि हम अधूरा स्वास्थ्य प्राप्त करते हैं। पूरा स्वास्थ्य तो तभी प्राप्त होता है, जब तन के साथ मन भी अपना काम करता है। इस प्रकार तन-मन दोनों का चोली-दामन का साथ है। इसीलिए तो कहा गया है- मन के हारे-हार है,
मन के जीते जीत। विचारकों और चिकित्सकों ने हर प्रकार की कसौटी पर कसकर यह सिद्ध कर दिया है कि मानसिक क्रिया, विचार और शक्ति ही शारीरिक क्रिया का आधार है, क्योंकि जब मन में किसी प्रकार का अच्छा बुरा विचार आता है तो शरीर उसे कार्य रूप में बदलने का प्रयत्न करता है। उदाहरण के लिए यदि मन में यह आता है कि मुझे बुखार है तो तन भी तपने लगता है और चेहरा मुरझा जाता है।
इसी प्रकार यदि हमारे शरीर में कहीं दर्द होता है तो मन दुखी हो जाता है। इसलिए जीवन तथा स्वास्थ्य को पूर्ण बनाने के लिए हमारी शारीरिक और मानसिक एकता का होना अनिवार्य है। क्योंकि शरीर के किसी अंग में चोट या दर्द होने पर उसका प्रभाव सारे शरीर में बिजली की तरह दौड़ जाता है। सुखद समाचार का प्रभाव भी हमारे शरीर पर पड़े बिना नहीं रहता। उस समय हमारा तन-बदन खिल उठता है और चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं खिंच जाती हैं। इसलिए जीवन तथा स्वास्थ्य की पूर्णता प्राप्त करने के लिए हमें तन- मन दोनों को स्वास्थ्य और रोग रहित रखना चाहिए।
तीन दोषों से रोगों की उत्पत्ति
हमारे शरीर में तीन दोष होते हैं-वात, पित्त और कफ। इनके बारे में अनपढ़ एवं पढ़े-लिखे सभी व्यक्ति जानते हैं। तीनों दोषों में कुछ तत्त्व होते हैं, जैसे- वात में वायु और आकाश तत्त्व होता है। पित्त में अग्नि या तेज तथा जल तत्त्व है जबकि कफ में पृथ्वी और जल तत्त्व है। असल में दोष ऊर्जा के तीन रूप हैं। मनुष्य के शरीर में ये तीनों एक दल के रूप में काम करते हैं। प्रत्येक दोष का अपना एक व्यक्तिगत गुण होता है और दूसरों के प्रति दो विरोधी गुण होते हैं। अतः दोषों के विषय में जानकारी प्राप्त करना भी जरूरी है।

वात दोष (कार्यपालक)
वात दोष गतिशील होता है, इसलिए यह एक प्रकार की ऊर्जा है। यह सारे शरीर का कार्यपालक अधिकारी है। यह शरीर के संचार में ज्ञानेन्द्रिय से मस्तिष्क तक महत्त्वपूर्ण है। यह विचार को स्मृति से चेतना तक लाता है और वर्तमान अनुभवों को स्मृतियों में बदल देता है। यह बोली को सही रूप देता है और हंसी-खुशी का आधार है। मतलब यह कि कार्य करने वाली उंगलियों के पीछे भी वात की शक्ति काम करती है। आयुर्वेद के व्याख्याकार महर्षि चरक ने वात (वायु) को पांच प्रकार का बताया है-
प्राण– इसका सम्बंध छाती और श्वसन से है।
व्यान– इसका सम्बंध हृदय के कार्यों से अधिक है।
उदान– इसका सम्बंध भोजन नली से है। यह उलटी तथा भोजन नली से सम्बंधित रोग बढ़ाता है।
समान-इसका सम्बंध आंतों से है। यह भोजन को पचाने तथा मल बनाने का कार्य करता है।
अपान– यह गुदा तथा मूत्र प्रणाली से सम्बंध रखता है। यह मल त्याग, शुक्र निकालने तथा प्रसव को नियंत्रित करने का कार्य करता है।
इस प्रकार वायु और आकाश से बना वात प्राकृतिक रूप से हल्का और शुष्क होता है। यदि यह कुपित हो जाए तो वात सम्बंधी रोग पैदा हो जाते हैं, जैसे-घुटनों में दर्द, पेट में दर्द, लकवा, जीभ का अकड़ जाना, कूल्हे आदि में दर्द। वात न घटता है और न बढ़ता है। वह केवल असंतुलित हो जाता है। जिन दोषों को यह नियंत्रित करता है, वे बिगड़कर रोग बन जाते हैं। इसलिए अधिकतर चिकित्सा इसका दोष सामान्य करने के लिए की जाती है।
पित्त दोष (उत्तेजक और गतिशील)
पित्त दोष शरीर में सभी प्रकार के रूप बदलने के लिए उत्तरदायी है। यह आहार नली में भोजन की पाचन क्रिया नियंत्रित करता है। यह रेटिना पर पड़ने वाली प्रकाश की किरणों को बिजली के स्पंदन में बदल देता है। हमारे मस्तिष्क में एक स्थानीय पित्त दोष होता है। यह क्षेत्रीय प्रबंधक का काम करता है। इसकी वजह से रोगों के सम्बंध में विचार करने की क्षमता आती है। यही वजह है कि पित्त दोष वाले व्यक्ति अधिक समझदार होते हैं। वे शीघ्र हो कोई न कोई निर्णय लेने में समर्थ होते हैं।
पित्त दोष क्रोध, भय, अक्खड़पन आदि मनोविकारों को नियंत्रित करता है। यह बुद्धि को भी तेज करता है। परन्तु इसके कारण व्यक्ति लोभी प्रवृत्ति का हो जाता है। इससे भूख-प्यास लगती है। यह त्वचा में आभा उत्पन्न करता है। शरीर के तापमान के नियमन में सहायक होता है। ऐसी हालत में वात की अपेक्षा पित्त अधिक कायिक है।
पित्त के कुपित होने से सिर दर्द, बमन, अतिसार तथा त्वचा रोग उत्पन्न हो जाते हैं। मसालेदार, चिकनाई युक्त तथा कड़वा भोजन करने या देर रात तक जागने, तनाव या चिन्ताग्रस्त होने से पित्त असंतुलित हो जाता है और तरह- तरह के रोग पैदा हो जाते हैं।
कफ दोष (शक्तिदाता)
वात बुढ़ापे की लाठी है और पित्त युवा जीवन की ऊर्जा। लेकिन ‘कफ’ शरीर को शक्ति देने वाली ऊर्जा का काम करता है। यह चिकनाई तथा सबलता प्रदान करता है। चूंकि यह ऊतकों के बहुत करीब है, इसलिए इसे बड़ा मौलिक रूप प्रदान किया गया है। कफ पित्त का विरोधी है, क्योंकि यह स्वभाव से उपचयी है। जहां पित्त उत्तेजित होता है, वहीं कफ उसे शान्त करता है। इसका विशेष गुण स्थायित्व है। कफ में धैर्य रखने की प्रवृत्ति होती है। यह भोजन नली को चिकना करता है। यह सूक्ष्मतम कोशिका के निर्माण में सहायक होता है। साथ ही बड़ी से बड़ी हड्डी के निर्माण में भी हाथ बंटाता है।
कफ सभी ढांचागत तत्त्वों को एक साथ बांधे रखता है। यह मानसिक शक्ति प्रदान करने के साथ-साथ रोगों के विरुद्ध रोधक क्षमता भी बढ़ाता है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष को सेक्स की शक्ति कफ के कारण ही प्राप्त होती है। चूंकि कफ जल और पृथ्वी तत्त्व से बना है, इसलिए यह भारी, स्थिर और आर्द्र होता है। जो लोग भोजन में मीठे, खट्टे और नमकीन पदार्थ अधिक मात्रा में ग्रहण करते हैं, उनका कफ कुपित हो जाता है। खांसी, ज्वर, शरीर दर्द आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
कफ की प्रधानता वाले लोगों को अधिक तकलीफ उठानी पड़ती है। कफ को अधिकता के कारण व्यक्ति मोटा, संतुष्ट और कुछ सुस्त हो जाता है।यदि कफ दोष बढ़ जाए तो व्यक्ति ईर्ष्यालु, नपुंसक, क्षीण, लार छोड़ने वाला तथा खराब पाचन शक्ति वाला हो जाता है। इस प्रकार कफ पित्त की उग्रता को शान्त करने वाला सौम्य दोष है। यह सदैव वात के आदेश का पालन करता है। इस प्रकार हमारे शरीर को स्वस्थ रखने वाले तीन अधिकारी हैं- वात, पित्त और कफ। यदि हम इनके विरुद्ध चलने की कोशिश करते हैं तो बीमार पड़ जाते हैं।
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